कृष्ण कांत की कलम से। सरकार को शहीदों के नाम पर वोट चाहिए,सिस्टम को उन्हें दी जाने वाली सुविधाओं के नाम पर मोटा कमीशन चाहिए और हम आप को 15 अगस्त,26 जनवरी या शहीदों की शव यात्रा में उनकी तस्वीरों या कॉफिन के साथ कई सारी सेल्फी चाहिए होती है, ताकि हमारी दिखावटी देशभक्ति को ज्यादा से ज्यादा लाइक्स और कमेंट मिले…*
सच कहूं तो खुद को देशभक्त बोलने से पहले हममें अगर थोड़ी भी शर्म बाकी हो तो चुल्लू भर पानी मे डूब मरना चाहिए…
क्योंकि यह तो आप भी भली भांति जानते है,कि पुलवामा के 44 शहीद परिवारों में अधिकांश शहीद जवानों के परिजन तमाम सरकारी घोषणाओं के बावजूद आज किस हाल में होंगे…
*इन 44 शहीदों में से एक शहीद जवान रमेश यादव के परिवार का हाल..*
बिना दरवाजे का, टीन की छत वाला यह घर किसी झुग्गी बस्ती का नहीं है। इस घर ने एक ऐसा जवान पैदा किया था जो देश के लिए शहीद हो गया। लेकिन शायद इस देश ने ऐसे लाल पैदा नहीं किये हैं कि जो शहीदों का उजड़ा घर बसा दें।
यह पुलवामा के शहीद रमेश यादव का घर है। 14 फरवरी को रमेश की शहादत की पहली बरसी थी। रमेश यादव की पहली बरसी पर परिवार को यह तोहफा मिला है कि परिवार बेघर होने वाला है और यह दो कमरे का उनका घर तोड़ दिया जाएगा और मलबा जरूर परिवार को मिलेगा। इस परिवार के पास संतोष करने के लिए मात्र यही एक चीज है कि उनका बेटा देश के लिए शहीद हो गया।
रमेश यादव भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के तोफ़ापुर गांव के रहने वाले थे। रमेश यादव की मौत के बाद उनके घर पर नेताओं का तांता लग गया था।
वादों में रमेश की पत्नी और बड़े भाई को नौकरी, जर्जर मकान की मरम्मत, स्मृति द्वार, स्मारक, सड़क, शौचालय और जाने क्या क्या दिया गया था।
पुलवामा हमला 2019 के लोकसभा चुनावों में मुद्दा बनाया गया था. एक्सपर्ट बताते हैं कि सेना को चुनावी मुद्दा बनाने का प्रयोग सफल भी रहा।
रमेश के पिता दूध बेच कर परिवार पालते हैं। रमेश की पढ़ाई के लिए उन्होंने कर्ज लिया था। पोते आयुष और अपने इलाज के लिए भी ढाई लाख कर्ज लिए। उनका दो बीघा खेत गिरवी था।
रमेश यादव के पिता श्याम नारायण यादव सरकार की वादा-ख़िलाफी से दुखी और नाराज़ हैं. उनका कहना है परिवार बदहाल हो चुका है.
रमेश के भाई को नौकरी देने से सरकार पलट गई है। तर्क है कि ऐसा प्रावधान नहीं है। केंद्र सरकार, राज्य सरकार और प्रियंका गांधी, तीनों ने भाई को जबानी नौकरी दी थी। लेकिन अब तीनों गायब हैं।
रमेश की विधवा हो चुकीं पत्नी रीनू यादव को वाराणसी के डीएम ऑफिस में कोई नौकरी दी गई है, लेकिन परिवार की ज़रूरतों के आगे नाकाफी है।
रमेश के पिता का कहना है कि उनके हिस्से का मकान पारिवारिक बंटवारे में उनके भाइयों के पास जा चुका है. इस बंटवारे के मुताबिक़ मकान के नाम पर बने दो कमरे कुछ दिनों बाद तोड़ दिए जाएंगे और वे बेघर हो जाएंगे। वो जमीन भाइयों को मिलेगी, लेकिन घर तोड़कर उसका मलबा रमेश के परिवार को मिलेगा।
रमेश की अंत्येष्टि के दिन सरकार की ओर से दो कमरे का मकान बनवाने का वादा किया गया था. हालांकि अब उन्हें दुनिया भूल चुकी है।
रमेश की मां बताती हैं, “बेटे की सीआरपीएफ़ में नौकरी लगी तो सभी बेहद ख़ुश थे. उसने अपनी तनख्वाह से पिता के कुछ क़र्जे़ चुकाए थे. उसकी मौत के बाद मिली सहायता राशि से परिवार ने बचे हुए क़र्जे़ चुकाए.”
टीन की छत रमेश की बचपन की तस्वीरें भी नहीं बचा सकी, तो परिवार को क्या बचाएगी। क़र्ज़ और ब्याज़ चुकाने के बाद उनके पास मकान बनाने के पैसे भी नहीं बचे हैं.
वादा पूरा करने के नाम पर गांव में एक अधूरी सड़क बनी है। शहीदों के नाम पर कुछ पौधे लगाए गए थे वे शहीद के परिवार की उम्मीदों की तरह सूख चुके हैं। रमेश की मां के आंसू ज़रूर नहीं सूखे।
कुछ दुख लंबे लेख लिख कर भी नहीं कहे जा सकते।…