Home समाचार आज नृसिंह जयंती पर विशेष — अरविन्द तिवारी की कलम से

आज नृसिंह जयंती पर विशेष — अरविन्द तिवारी की कलम से

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रायपुर — वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को शक्ति तथा पराक्रम के देवता नृसिंह जयंती के रूप में मनाया जाता है। पौराणिक मान्यता एवं धार्मिक ग्रंथों के अनुसार इसी तिथि को भक्त प्रह्लाद की रक्षा हेतु भगवान विष्णु अपने दस अवतारों में से चौथे अवतार नृसिंह के रूप में प्रकट हुये थे। जब-जब धरती पर अत्याचार हुये तब भगवान श्रीहरि ने अवतार लेकर दुष्टों का नाश किया है और मानव को इनके अत्याचारों से मुक्ति दिलवायी है।प्राचीन काल में कश्यप नामक ऋषि हुये , उनकी पत्नी का नाम दिति था। उनके दो पुत्र हुये जिनमें से एक का नाम हरिण्याक्ष तथा दूसरे का हिरण्यकश्यप था। हिरण्याक्ष को भगवान श्री विष्णु ने पृथ्वी की रक्षा हेतु वाराह रूप धरकर मार दिया था। अपने भाई कि मृत्यु से दु:खी और क्रोधित हिरण्यकश्यप ने भाई की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिये अजेय होने का संकल्प किया। हिरण्यकश्यप ने अमर और अजेय बनने के लिये सहस्त्रों वर्षों तक कठोर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया। उसने ब्रह्मा जी से वरदान माँगा कि ना उसे कोई मानव मार सके ना कोई पशु , ना रात और ना ही दिन में उसकी मृत्यु हो , उसे ना कोई घर के भीतर मार सके और ना बाहर , ना धरती पर और ना आकाश में मरे , ना किसी अस्त्र से और ना किसी शस्त्र से उसकी मौत हो। वर मिलने से वह तीनों लोकों में कोहराम मचाने लगा और देवता भी उससे खौफ खाने लगे। भगवान की आराधना करने वालों को वह कठोर दंड देता था और सभी देवभक्तों से अपनी पूजा करवाता था। उसके इस तरह के राज करने से देवता घबरा गये और तीनों लोकों में त्राहि त्राहि होने लगी। हिरण्यकश्यप का अहंकार जब चरम सीमा पर पहुँच गया तो उसके अत्याचारों से छुटकारा पाने के लिये सभी भगवान विष्णु की शरण में गये। श्रीहरि ने उनकी बात सुनकर हिरण्यकश्यप के वध का आश्वासन दिया। इसी दौरान हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया। राक्षस कुल में जन्म लेने पर भी प्रह्लाद में राक्षसों जैसे कोई भी दुर्गुण मौजूद नहीं थे तथा वह भगवान नारायण का भक्त था तथा अपने पिता के अत्याचारों का विरोध करता था। भगवान-भक्ति से प्रह्लाद का मन हटाने और उसमें अपने जैसे दुर्गुण भरने के लिये हिरण्यकश्यप ने बहुत प्रयास किये।  नीति-अनीति सभी का प्रयोग किया किंतु प्रह्लाद अपने मार्ग से विचलित ना हुआ तब उसने प्रह्लाद को मारने के षड्यंत्र रचे मगर वह सभी में असफल रहा। भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद हर संकट से उबर आता और बच जाता था। इस बातों से क्षुब्ध हिरण्यकश्यप उसे अपनी बहन होलिका की गोद में बैठाकर जिन्दा ही जलाने का प्रयास किया। होलिका को वरदान था कि अग्नि उसे नहीं जला सकती परंतु जब प्रह्लाद को होलिका की गोद में बिठाकर अग्नि में डाला गया तो उसमें होलिका तो जलकर राख हो गई किंतु प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ। इस घटना को देखकर हिरण्यकश्यप क्रोध से भर गया उसकी प्रजा भी अब भगवान विष्णु को पूजने लगी।  एक दिन हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद से पूछा कि बता तेरा भगवान कहाँ है? इस पर प्रह्लाद ने विनम्र भाव से कहा कि प्रभु तो सर्वत्र हैं, हर जगह व्याप्त हैं. क्रोधित हिरण्यकश्यप ने कहा कि ‘क्या तेरा भगवान इस खंभे में भी है? प्रह्लाद ने हाँ, में उत्तर दिया।यह सुनकर क्रोधांध हिरण्यकश्यप ने खंभे पर प्रहार कर दिया तभी खंभे को चीरकर श्री नृसिंह भगवान प्रकट हो गये। उनका मुँह और पंजा सिंह की तरह था। हिरण्यकश्यप को पकड़कर अपनी जाँघों पर रखकर उसकी छाती को नखों से फाड़ डाला और उसका वध कर दिया इस तरह से भगवान नृसिंह ने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की और हिरण्यकश्यप का वध करके धरती को उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलवायी। हिरण्‍यकश्‍यप के वध के बाद भी भगवान नरस‍िंह का क्रोध शांत नहीं हुआ। उनके इस व‍िकराल रूप से तीनों लोक कांँपने लगे। तब सभी देवता श‍िवजी की शरण में पहुंँचे और उनसे श्रीहर‍ि का क्रोध शांत करने की प्रार्थना की। इसके बाद भोलेनाथ ने ऋषभ अवतार लिया और नृसिंह को अपनी पूंँछ से खींचकर पाताल लोक लेकर गये । वहां काफी देर तक उसे वैसे ही अपनी पूंँछ में जकड़कर रखा। भगवान नरस‍िंह ने काफी प्रयास क‍िये लेकिन खुद को छुड़ा नहीं पाये। थोड़ी ही देर में नृस‍िंह भगवान ने भोलेनाथ को पहचान लिया और तब जाकर उनका क्रोध शांत हुआ। आज के दिन नृसिंह भगवान की  व्रत-उपवास एवं षोडशोपचार पूजा अर्चना की जाती है। इस व्रत करने वाला व्यक्ति लौकिक दुःखों से मुक्त हो जाता है भगवान नृसिंह अपने भक्त की रक्षा करते हैं व उसकी समस्त मनोकामनायें पूर्ण करते हैं। श्री नृसिंह ने प्रह्लाद की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि आज के दिन जो भी मेरा व्रत करेगा वह समस्त सुखों का भागी होगा एवं पापों से मुक्त होकर परमधाम को प्राप्त होगा।

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