संजीव वर्मा
देश में लोकतंत्र के महापर्व का महाउत्सव शुरू हो गया है और भाजपा देश में सनातन और राष्ट्रवाद के सहारे विपक्ष के महागठबंधन को घेरने की कोशिश कर रही है। लोकसभा चुनाव के पहले चरण में 21 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की 102 सीटों पर मतदान संपन्न हो चुका है। 44 दिनों तक चलने वाला यह लोकतांत्रिक महोत्सव एक जून तक चलेगा और 4 जून को इसके नतीजे आएंगे। अब तक के चुनाव परिदृश्य को देखें तो लगता है कि यह चुनाव देश में हुए पिछले चुनावों से काफ ी अलग है। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा राष्ट्रवाद, सनातन और कांग्रेस की नाकामियों के सहारे चुनावी मैदान में ताल ठोंक रही है, तो दूसरी ओर इंडिया, गठबंधन संविधान बदलने और लोकतंत्र की दुहाई देते हुए सिर्फ लकीर पीट रही है। अच्छा होता यदि वह अपना पूरा ध्यान केंद्र सरकार की नाकामियों, महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी और भ्रष्टाचार के मुद्दों को लेकर जनता के बीच अपनी बात रखते। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। आज दोनों ओर से सिर्फ और सिर्फ वोट की फ सल काटने की कवायद जारी है। जहां तक भाजपा का सवाल है तो वह गरीबी, महंगाई,बेरोजगारी और किसानों के मुद्दों से पिंड छुड़ाती हुई दिख रही है। वर्ष 2014 और 2019 के चुनावों में भाजपा इन्हीं मुद्दों को लेकर चुनावी मैदान में थी। लेकिन आज भाजपा का कोई भी नेता अपनी चुनावी सभाओं में इन मुद्दों को छू भी नहीं रहा है। सबका साथ और सबका विकास के नारे के दम पर दस साल से सत्ता पर काबिज भाजपा पूरी तरह जान और समझ चुकी है कि आज उसके पास सनातन के रूप में ऐसा ब्रह्मास्त्र है,जिसकी काट किसी के पास नहीं है। यही वजह है कि महंगाई और बेरोजगारी जैसे अहम् मुद्दे गायब हो गए हैं। हालांकि उसके संकल्प पत्र में गांव,गरीब,किसान की बातें कही गई है। लेकिन प्रचार में यह कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। भाजपा और उनके सहयोगी पूरी तरह से एक ही एजेंडे पर काम कर रहे हैं। कार्यकर्ता भी मोदी जी के अब की बार 400 पार के नारे से आत्ममुग्ध हैं। यदि कोई मोदी सरकार की नाकामियों को बताना चाहे तो श्उल्टा चोर कोतवाल को डॉटे की तर्ज पर वे इसे कांग्रेस शासन के मत्थे मढक़र अपना पिंड छुड़ाने में लग जाते हैं। दूसरी ओर इंडिया गठबंधन की हालत जगजाहिर है। समय और अवसर दोनों होने के बावजूद यह गठबंधन एकजुटता और भाजपा के खिलाफ आक्रामकता दिखाने में अब तक असफ ल रहा है। पहले वे जिन मुद्दों को लेकर एकजुटता दिखाता रहा है वह नदारत है। संविधान और लोकतंत्र को बचाने के नाम पर एकजुटता दिखा रहा इंडिया की स्थिति जैसे एक दो महीने पहले थी वैसी अब नहीं रही। ममता बनर्जी और नीतीश कुमार के अलग होने के बाद यह गठबंधन बिखरा बिखरा सा दिख रहा है। लेकिन केजरीवाल की गिरफ्तारी ने सहारा जरूर दिया है। गठबंधन के नेता इस चुनाव को भाजपा बनाम इंडिया नहीं बल्कि भाजपा बनाम आम जनता के बीच की लड़ाई के रूप में लडऩा चाहते हैं। जैसे 1977 में आपातकाल के बाद हुए चुनाव में विपक्ष ने लड़ा था। लेकिन आज ऐसी स्थिति नहीं है। इंडिया गठबंधन के नेता अपनी ढपली-अपना राग अलाप रहे हैं। ऐसे में वह भाजपा को टक्कर दे पाएगा, यह कहना मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि भाजपा हर राज्य में मजबूत है। गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, और राजस्थान को छोड़ दें तो कोई भी राज्य ऐसा नहीं हैए जहां भाजपा के सामने विपक्ष कमजोर है। ऐसे में कुछ भी हो सकता है। हमारा मानना है कि अधिकतर राज्यों में कांटे की टक्टर है। किसी को कम आंकना भूल हो सकती है। वैसे भाजपा हर राज्य में जी.जान से पूरे तन,मन,धन से चुनाव लड़ रही है। लेकिन अंत में जनता ही सर्वोपरि होती है। उसका फैसला अंतिम और सर्वमान्य होता है। लोकतंत्र में जनता से बड़ा कोई नहीं होता। छत्तीसगढ़ में भी भाजपा के लिए राह आसान नहीं है। भले ही वह 11 की 11 सीटें जीतने का दावा कर रही है। लेकिन वास्तविक धरातल में स्थिति अनुकूल नहीं है। इस बात को उनके नेता भी जान और समझ रहे हैं। अधिकतर सीटों पर कांटे की टक्कर है। खासकर, राजनांदगांव, कांकेर, कोरबा और महासमुंद में भाजपा फ ंसती हुई दिख रही है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि ऊंट किस करवट बैठेगा।