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पेसा कानून तो 1996 से लागू है 17 साल से क्या कर रही थी सरकार

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भोपाल  । प्रदेश सरकार द्वारा जबलपुर में कल पेसा कानून को लागू करने की घोषणा प्रदेश में विगत 17 साल से आदिवासी समाज को उनके संवैधानिक हक से वंचित करने की स्वीकारोक्ति है। यह कानून देश में 1996 से लागू है इसका अर्थ है कि पिछले 17 वर्ष में प्रदेश के अंदर ग्राम सभाओं की अवहेलना करके आदिवासियों और ग्रामीण व्यवस्था को भाजपा सरकार द्वारा जानबूझकर नुकसान पहुंचाया गया है उनके अधिकारों का हनन किया है। पांचवी अनुसूची के जो लोग अपने फैसले करने के लिए संवैधानिक रूप से अधिकारी थे। उनके अधिकारों को रोका गया है।

प्रदेश कांग्रेस कमेटी के मीडिया उपाध्यक्ष भूपेंद्र गुप्ता मांग की है कि सरकार आदिवासी समाज और प्रदेश से कानूनों के लागू करने के मामले में पक्षपात करने के लिये माफी मांगे और बताए कि जंगलों की कटाई, लघु वनोपजों के संग्रहण और वन भूमि के पट्टों , खनिज संसाधनों पर अवैधानिक उत्खनन को लेकर कितनी ग्राम सभाओं और समितियों की अनुशंसा को माना है?

गुप्ता ने कहा कि आदिवासी समाज को झूठे प्रलोभन देने के बजाय सरकार को यह बताना चाहिए कि विगत 17 साल में उसने कितने आदिवासी महानायकों की मूर्तियां लगाईं? कितने आदिवासियों को पट्टे वितरण में अपात्र किया ? आदिवासी उप योजना का कितना धन गैर आदिवासी योजनाओं में खर्च किया गया ?कितनी बार आदिवासी मंत्रणा परिषद बनाई गई और उसकी बैठकें आयोजित हुईं?

पेशा कानून मध्यप्रदेश में लागू करने में असफल रही इस सरकार को आदिवासी समाज के वोटों का कोई हक नहीं है जो अधिकार संविधान ने दिए हैं कानून ने दिए हैं उनमें भी रोड़े अटकाने का काम करने वाली सरकारें आदिवासी समाज की हितैषी नहीं मानी जा सकतीं।

गुप्ता ने मांग की कि सरकार बताएं कि अभी तक पेसा कानून को मानने में सरकार को क्या दुविधा थी? इन 17 सालों में इस कानून के तहत काम क्यों नहीं हुआ?

गुप्ता ने आरोप लगाया कि पेसा कानून की अवहेलना कर सरकार ने स्थानीय पर्यावरण समितियों का गठन कर खनिज की खुली लूट को अवसर दिया जिसे आगे जाकर राष्ट्रीय हरित ट्रिब्यूनल मैं मेरे द्वारा दायर याचिका के बाद उन समितियों को बंद करना पड़ा । सरकार ने यह स्वीकार करके कि पेसा कानून लागू किया जाएगा कांग्रेस के बरसों से लगाए जा रहे आरोप पर मोहर लगा दी है। इसके लिये उसे आदिवासी समाज से माफी मांगना चाहिये।

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