भोपाल । वन विभाग की वायरलेस की खरीद प्रक्रिया एक बार फिर खटाई में पड गई है। इस वजह से बाघों की निगरानी के लिए जरुरी वायरलेस से अभी नहीं मिल पाएंगे। वन विभाग एक साल में वायरलेस सेट नहीं खरीद पाया और लाइसेंस की अवधि समाप्त हो गई। वन विभाग वायरलेस की टेंडर की शर्तों की खींचतान में उलझकर रह गया है। अब विभाग ने दूरसंचार मंत्रालय को लाइसेंस नवीनीकरण के लिए पत्र लिखा है। प्रदेश के संरक्षित क्षेत्रों (टाइगर रिजर्व, नेशनल पार्क और अभयारण्य) के लिए 1400 सेट खरीदने थे। इसके लिए तीन कंपनियों ने टेंडर डाल भी दिए थे लेकिन उन्हें निरस्त कर दिया गया है। इसी के साथ सेट खरीदने के लिए मंजूर पांच करोड़ रुपये भी लेप्स हो गए जिसे वापस लेने फिर से कैंपा की राज्य स्तरीय समिति से अनुरोध करना होगा। प्रदेश में 35 संरक्षित क्षेत्र हैं। इनमें छह टाइगर रिजर्व हैं, जिनमें 80 फीसद बाघों की आबादी है। संरक्षित होने के कारण इन क्षेत्रों में घने जंगल हैं, जहां मोबाइल नेटवर्क काम नहीं करता है। ऐसे क्षेत्रों की निगरानी के लिए वायरलेस की जरूरत होती है, पर इन क्षेत्रों में सौ से भी कम सेट से काम चलाना पड़ रहा है। करीब 10 साल से विभाग नए सेट खरीदने की कोशिश कर रहा है। वर्ष 2013 में तो कोलकाता की एक कंपनी को ढाई करोड़ रुपये अग्रिम भी दे दिए गए थे, पर लाइसेंस न होने के कारण कंपनी ने सेट नहीं दिए और विभाग को किस्तों में राशि वापस लेना पड़ी।
कई स्तर पर नौ साल की मेहनत के बाद पिछले साल लाइसेंस मिला था और दूरसंचार मंत्रालय ने मई 2021 तक सेट खरीदकर सूची उपलब्ध कराने को कहा था। विभाग सेट ही नहीं खरीद पाया और अब लाइसेंस न होने से कोई कंपनी सेट दे नहीं सकती है। सूत्र बताते हैं कि तय समय में वायरलेस सेट नहीं खरीद पाने की मुख्य वजह टेंडर की शर्तों में संशोधन कराने की कोशिश है। इंदौर के एक व्यापारी के लिए कंपनी की नेटवर्थ कम तय करने का दबाव था, पर तब तक तीन कंपनियों के टेंडर ही आ चुके थे। इसलिए संशोधन संभव नहीं था। इसी खींचतान में मई निकल गया। ज्ञात हो कि विभाग ने वर्ष 1991 में 450 वायरलेस खरीदे थे, जो संरक्षित और सामान्य क्षेत्र के लिए थे। इनमें से जोड़-तोड़ कर सौ सेट भी नहीं चल रहे हैं। ये सेट 10 साल में कंडम घोषित होने थे। इसलिए दूरसंचार मंत्रालय ने उस अवधि के लिए लाइसेंस दिया था, जिसका विभाग लगातार उपयोग करता रहा और मंत्रालय चक्रवर्ती ब्याज लगाता रहा। आखिर वर्ष 2017 में विभाग की देनदारी बढ़कर 70 करोड़ रुपये हो गई। बकाया जमा किए बगैर मंत्रालय लाइसेंस देने को तैयार नहीं था। तब उच्च स्तर पर कई बैठकें हुईं और इस शर्त के साथ लाइसेंस दिया गया कि पुरानी राशि किस्तों में चुकाना होगी। अब वन विभाग वायरलेस की टेंडर की शर्तों की खींचतान में उलझकर रह गया है।