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रामराज्य के प्रणेता धर्मसम्राट स्वामी श्रीकरपात्री जी

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अरविन्द तिवारी की कलम से

रायपुर — सर्वभूतहृदय यतिचक्रचूड़ामणि रामराज्य के प्रणेता धर्मसम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज का आज 113 वाँ प्राकट्य दिवस है। वे भारत के एक सन्त, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं राजनेता थे। दशनामी परंपरा के सन्यासी स्वामीजी का मूल नाम हरिनारायण ओझा था। दीक्षा के उपरान्त उनका नाम ‘हरिहरानन्द सरस्वती’ पड़ा किन्तु वे ‘करपात्री’ नाम से ही प्रसिद्ध थे। (कर = हाथ , पात्र = बर्तन, करपात्री = हाथ ही बर्तन हैं जिसके)। आप के कर कमलों में जितना भोजन आता आप उतना ही भोजन प्रसाद समझकर प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर लेते इसलिये आप करपात्री के नाम से विख्यात हुये। धर्मनियंत्रित , पक्षपातविहिन , शोषण विनिर्मुक्त शासनतंत्र की स्थापना के लिये आपने वर्ष 1948 में अखिल भारतीय रामराज्य परिषद नामक राजनैतिक दल का भी गठन किया था। धर्मशास्त्रों में इनकी अद्वितीय एवं अतुलनीय विद्वता को देखते हुये इन्हें ‘धर्मसम्राट’ की उपाधि प्रदान की गयी थी। आज जो रामराज्य सम्बन्धी विचार गांधी दर्शन तक में दिखाई देते हैं, धर्म संघ, रामराज्य परिषद्, राममंदिर आन्दोलन, धर्म सापेक्ष राज्य, आदि सभी के मूल में स्वामी जी ही हैं।
स्वामी करपात्री का जन्म सम्वत् 1964 विक्रमी (सन् 1907 ईस्वी) में श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, द्वितीया को उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के भटनी ग्राम में सनातनधर्मी सरयूपारीण ब्राह्मण रामनिधि ओझा एवं श्रीमती शिवरानी जी के आँगन में हुआ। बचपन में उनका नाम ‘हरिनारायण’ रखा गया। स्वामी जी तीन भाई थे –ज्येष्ठ भ्राता हरिहरप्रसाद , मँझले हरिशंकर और छोटे हरिनारायण आप स्वयं थे। मात्र 09 वर्ष की अल्पायु में प्रतापगढ़ के खंडवा गाँव के पं० रामसुचित की सुपुत्री महादेवी जी के साथ आपका विवाह संपन्न करा दिया गया किन्तु 17 वर्ष की आयु में एक पुत्री के जन्म लेने के बाद आपने पूरे परिवार को रोता बिलखता छोड़ माता पिता को प्रणाम करके हमेशा के लिये गृहत्याग कर दिया। उसी वर्ष ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती से कांशी के दुर्गाकुण्ड में नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा लेकर दण्ड ग्रहण किया। षड्दर्शनाचार्य स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रम जी महाराज से व पंजाबी बाबा श्री अचुत्मुनी जी महाराज से अध्ययन ग्रहण किया। सत्रह वर्ष की आयु से हिमालय गमन प्रारंभ कर अखंड साधना की और श्रीविद्या में दीक्षित होने पर धर्मसम्राट का नाम षोडशानन्द नाथ पड़ा। केवल 24 वर्ष की आयु में परम तपस्वी 1008 श्री स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज से विधिवत दण्ड ग्रहण कर “अभिनवशंकर” के रूप में प्राकट्य हुआ। एक सुन्दर आश्रम की संरचना कर पूर्ण रूप से सन्यासी बन कर “परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज” कहलाये। करपात्री जी का अधिकांश जीवन वाराणसी में ही बीता। वे अद्वैत दर्शन के अनुयायी एवं शिक्षक भी थे। उन्होने सम्पूर्ण भारत में पैदल यात्रायें करते हुये धर्म प्रचार के लिये सन 1940 ई० में “अखिल भारतीय धर्म संघ” की स्थापना की। धर्मसंघ का दायरा संकुचित नहीं, अत्यन्त विशाल है जो आज भी प्राणी मात्र में सुख-शांति के लिए प्रयत्नशील है। संघ की दृष्टि में समस्त जगत और उसके प्राणी सर्वेश्वर भगवान के अंश हैं या उसके ही रूप हैं। संघ का मानना है कि यदि मनुष्य स्वयं शान्त और सुखी रहना चाहता है तो औरों को भी शान्त और सुखी बनाने का प्रयत्न आवश्यक है। इसलिये धर्मसंघ के हर कार्य के आरम्भ और अन्त में “धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो”, ऐसे पवित्र जयकारे किये जाते हैं। इसमें अधार्मिकों के नाश के बजाय अधर्म के नाश की कामना की गयी है। इंदिरा गांधी ने उनसे वादा किया था चुनाव जीतने के बाद अंग्रेजों के समय से चल रहे गाय के सारे कत्लखाने बंद हो जायेगें। लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मुसलमानों और कम्यूनिस्टों के दबाव में आकर अपने वादे से मुकर गयी थी। तब संतों ने 07 नवम्बर 1966 को संसद भवन के सामने धरना शुरू कर दिया। हिन्दू पंचांग के अनुसार उस दिन विक्रमी संवत 2012 कार्तिक शुक्ल की अष्टमी थी जिसे ‘गोपाष्टमी’ भी कहा जाता है। इस धरने में भारत साधु समाज, सनातन धर्म, जैन धर्म आदि सभी भारतीय धार्मिक समुदायों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। इस आन्दोलन में चारों शंकराचार्य तथा स्वामी करपात्री जी भी जुटे थे। श्री संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तथा पुरी के जगद्‍गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी निरंजनदेव तीर्थ तथा महात्मा रामचन्द्र वीर के आमरण अनशन ने आन्दोलन में प्राण फूंक दिये थे। लाखों साधु-संतों ने करपात्रीजी महाराज के नेतृत्व में बहुत बड़ा जुलूस निकाला। गोरक्षा महाभियान समिति के संचालक व सनातनी करपात्रीजी महाराज ने चांँदनी चौक स्थित आर्य समाज मंदिर से अपना सत्याग्रह आरम्भ किया। करपात्रीजी महाराज के नेतृत्व में जगन्नाथपुरी, ज्योतिष पीठ व द्वारका पीठ के शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय की सातों पीठों के पीठाधिपति, रामानुज संप्रदाय, माधव संप्रदाय, रामानंदाचार्य, आर्य समाज, नाथ संप्रदाय, जैन, बौद्ध व सिख समाज के प्रतिनिधि, सिखों के निहंग व हजारों की संख्या में मौजूद नागा साधुओं को पं. लक्ष्मीनारायणजी चंदन तिलक लगाकर विदा कर रहे थे। लाल किला मैदान से आरंभ होकर नई सड़क व चावड़ी बाजार से होते हुये पटेल चौक के पास से संसद भवन पहुंँचने के लिये इस विशाल जुलूस ने पैदल चलना आरम्भ किया। रास्ते में अपने घरों से लोग फूलों की वर्षा कर रहे थे। उस समय नई दिल्ली का पूरा इलाका लोगों की भीड़ से भरा था। संसद गेट से लेकर चांँदनी चौक तक सिर ही सिर दिखाई दे रहे थे ,लाखों लोगों की भीड़ जुटी थी जिसमें दस से बीस हजार तो केवल महिलायें ही शामिल थीं , हजारों संत और हजारों गोरक्षक एक साथ संसद की ओर कूच कर रहे थे। दोपहर लगभग ०१:०० बजे जुलूस संसद भवन पर पहुँच गया और संत समाज के संबोधन का सिलसिला शुरू हुआ।करीब ०३:०० बजे जब आर्य समाज के स्वामी रामेश्वरानन्द ने अपनी भाषण में कहा कि यह सरकार बहरी है। यह गोहत्या को रोकने के लिये कोई भी ठोस कदम नहीं उठायेगी , इसे झकझोरना होगा। मैं यहांँ उपस्थित सभी लोगों से आह्वान करता हूंँ कि सभी संसद के अंदर घुस जाओ और सारे सांसदों को खींच-खींचकर बाहर ले आओ, तभी गोहत्याबन्दी कानून बन सकेगा। कहा जाता है कि जब इंदिरा गांधी को यह सूचना मिली तो उन्होंने निहत्थे करपात्री महाराज और संतों पर गोली चलाने के आदेश दे दिये। पुलिस ने लाठी और अश्रुगैस चलाना शुरू कर दिया जिसके चलते भीड़ और आक्रामक हो गई। इतने में अंदर से गोली चलाने का आदेश हुआ और पुलिस ने संतों और गोरक्षकों की भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी। संसद के सामने की पूरी सड़क खून से लाल हो गई। उस गोलीकांड में असंख्य संत , महात्मा और गोभक्त मारे गये , दिल्ली में कर्फ्यू लगा दिया गया। संचार माध्यमों को सेंसर कर दिया गया और हजारों संतों को तिहाड़ की जेल में ठूंँस दिया गया। इस हत्याकाण्ड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारीलाल नन्दा ने अपना त्यागपत्र दे दिया और इस कांड के लिये खुद को एवं सरकार को जिम्मेदार बताया। इधर संत रामचन्द्र वीर अनशन पर डटे रहे, जो 166 दिनों के बाद समाप्त हुआ। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, पुरी के शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ ने गोरक्षा के लिये प्रदर्शनकारियों पर किये गये पुलिस जुल्म के विरोध में और गोवधबंदी की मांग के लिये 20 नवंबर 1966 को पुनः अनशन प्रारम्भ कर दिया जिसके लिये वे गिरफ्तार किये गये। प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का अनशन 30 जनवरी 1967 तक चला अंत में 73वें दिन डॉ. राममनोहर लोहिया ने अनशन तुड़वाया जिसके अगले दिन पुरी के शंकराचार्य ने भी अनशन तोड़ा। उसी समय जैन सन्त मुनि सुशील कुमार ने भी लंबा अनशन किया था। माघ शुक्ल चतुर्दशी सम्वत 2038 (07 फरवरी 1982) को केदारघाट वाराणसी में स्वेच्छा से उनके पंच प्राण महाप्राण में विलीन हो गये। उनके निर्देशानुसार उनके नश्वर पार्थिव शरीर का केदारघाट स्थित श्री गंगा महारानी को पावन गोद में जल समाधि दी गई। आपने अपने साहित्य सृजन के माध्यम से समाज में जो चेतना जागृत की है वह हमेशा अविस्मरणीय रहेगी। आपने वेदार्थ पारिजात, रामायण मीमांसा, विचार पीयूष , पूँजीवाद , समाजवाद , मार्क्सवाद जैसे अनेकों ग्रँथ लिखे। आपके ग्रन्थों में भारतीय परम्परा का बड़ा ही अद्भुत व प्रामाणिक अनुभव प्राप्त होता है। आपने सदैव ही विशुद्ध भारतीय दर्शन को बड़ी दृढ़ता से प्रस्तुत किया है। आपके लिखित ग्रंथों से यह प्रेरणा मिलती है कि लोकतंत्र मे राष्ट्र को समृद्धशाली बनाने में अध्यात्मवाद आवश्यकता है। आपने हिन्दू धर्म की बहुत सेवा की। आपका नाम विश्व के इतिहास में युगपुरुष के रूप में सदैव अमर रहेगा। स्वामीजी का प्राकट्य दिवस मनाना तभी सफल हो सकता है जब हम उनके बताये मार्गों पर चलने की प्रेरणा लें और भव्य राष्ट्र की संरचना में अपनी सहभागिता निश्चित करें।

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