अरविन्द तिवारी की कलम✍️से
जाँजगीर चाँपा — बैशाख शुक्ल पंचमी को जगद्गुरु आदि शंकराचार्य जयंती चारों पीठों सहित संपूर्ण भारत में अत्यंत उत्साह और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इसी दिन पूरे देश में जप, तप, पूजन हवन का आयोजन कर शंकराचार्य जी के बताये गये मार्गों पर चलने का शुभ संकल्प लिया जाता है। @ शंकरो शंकर: साक्षात् @ स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को भगवान शिव का अवतार माना जाता है और इनके दर्शन को अद्वैत वेदांत का दर्शन कहा जाता है। इन्होंने ने ही # ब्रह्म सत्यं , जगन् मिथ्या # ब्रह्मवाक्य को प्रचारित किया था। पूरे देश में शंकराचार्य को सम्मान सहित जगद्गुरु के नाम से जाना जाता है। आदि शंकराचार्य जी के विषय में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है उनकी महानता को लिखते लिखते मेरी कलम की स्याही और कागज के पन्ने भी कम पड़ जायेंगे। फिर भी श्रुति स्मृति पुराणों और जगद्गुरु शंकराचार्य जी के दिव्य वाणी से सुने हुये प्रवचनों के आधार पर कुछ लिखने की कोशिश कर रहा हूंँ।
आदि शंकराचार्य भारत के एक महान दार्शनिक एवं धर्म उद्धारक थे। उन्होने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान कर सनातन धर्म की विविध विचारधाराओं का एकीकरण किया। उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकायें बहुत प्रसिद्ध हैं , उनके द्वारा रचित शास्त्र आज भी आध्यात्मिक जगत में दैदीप्यमान नक्षत्र हैं। इन्होंने भारतवर्ष में चार मठों की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिन पर आसीन संन्यासी ‘शंकराचार्य’ कहे जाते हैं। उन्होंने तत्कालीन भारत में धार्मिक कुरीतियों को दूर कर अद्वैत वेदांत की ज्योति से देश को आलोकित किया। सनातन धर्म की रक्षा हेतु उन्होंने भारत के चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की। वे चारों स्थान ये हैं- (१) ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, (२) श्रृंगेरी पीठ, (३) द्वारिका शारदा पीठ और (४) पुरी गोवर्धन पीठ।
आदि शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म को पुनर्जीवित करने के लिये इन चारों मठों की स्थापना कर सबसे योग्यतम शिष्यों को शंकराचार्य बनाने की परंपरा शुरु की थी जो आज भी प्रचलित है। ये चारों मठ आज भी हिन्दू धर्म के सबसे पवित्र एवं प्रामाणिक संस्थान माने जाते हैं। उन्होंने अद्वैत वेदांत को ठोस आधार प्रदान कर सनातन धर्म की विविध विचारधाराओं का एकीकरण किया। इन्होंने अनेक मतवादों का खण्डन कर उनको भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। ये शंकर के अवतार माने जाते हैं। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है। इनका जन्म ईसापूर्व 507 में केरल में कालटी नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम आर्याम्बा था। बहुत दिन तक सपत्नीक शिव को आराधना करने के अनंतर शिवगुरु ने पुत्र-रत्न पाया था, अत: उसका नाम शंकर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गये थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। एकमात्र पुत्र होने के कारण माता इनको संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। तब एक दिन नदी किनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्य जी का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्यजी ने अपने माँ से कहा ” माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नही तो यह मगरमच्छ मुझे खा जायेगा “, इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की । आश्चर्य की बात है कि जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर छोड़ दिया। इसके बाद इन्होंने गोविन्द नाथ से संन्यास ग्रहण किया।
पहले ये कुछ दिनों तक काशी में रहे, और तब इन्होंने माहिष्मती के तालवन में मण्डन मिश्र को सपत्नीक शास्त्रार्थ में परास्त किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया तथा वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। कुछ बौद्ध इन्हें अपना शत्रु भी समझते हैं क्योंकि इन्होंने बौद्धों को कई बार शास्त्रार्थ में पराजित करके वैदिक धर्म की पुन: स्थापना की।इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और इनके जीवन का अधिकांश भाग उत्तर भारत में बीता। मात्र 08 वर्ष की आयु में सन्यास लेने वाले शंकराचार्य ने 12 वर्ष की आयु में सारे वेदों, उपनिषद, रामायण, महाभारत को कंठस्थ कर लिया था। शंकराचार्य ऐसे सन्यासी थे जिन्होंने गृहस्थ जीवन त्यागने के बाद भी अपनी मांँ का अंतिम संस्कार किया। चार पीठों (मठ) की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य रहा, जो आज भी मौजूद है। शंकराचार्य को भारत के ही नहीं अपितु सारे संसार के उच्चतम दार्शनिकों में महत्व का स्थान प्राप्त है। उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, किन्तु उनका दर्शन विशेष रूप से उनके तीन भाष्यों में, जो उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता पर हैं, मिलता है। गीता और ब्रह्मसूत्र पर अन्य आचार्यों के भी भाष्य हैं, परन्तु उपनिषदों पर समन्वयात्मक भाष्य जैसा शंकराचार्य का है, वैसा अन्य किसी का नहीं है। उन्होंने पूरे देश की यात्रा करते हुये बारह ज्योतिर्लिंगों का पुनरुद्धार किया और 32 वर्ष की अल्पायु में ही केदारनाथ धाम को महाप्रयाण के लिये चुना।
शंकराचार्य के विषय में कहा गया है
अष्टवर्षे चतुर्वेदी, द्वादशे सर्वशास्त्रवित् । षोडशे कृतवान्भाष्यम् द्वात्रिंशे मुनिरभ्यगात् ।
अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्य तथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकरभाष्य की रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। दशनाम गोस्वामी समाज (सरस्वती,गिरि,पुरी, वन, भारती, तीर्थ,सागर,अरण्य,पर्वत और आश्रम ) की संस्थापना कर, हिंदू धर्मगुरू के रूप में हिंदुओं के प्रचार प्रसार व रक्षा का कार्य सौपा और उन्हें अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी बताया। मठों में आदि शंकराचार्य से अब तक के जितने भी गुरु और उनके शिष्य हुए हैं उनकी गुरु-शिष्य परंपरा का इतिहास संरक्षित है।
भविष्यफल पुराण का भी कथन है-
कलौ द्विसहस्रान्ते लोकानुग्रहकाम्यया। चतुर्भिः सहशिष्यैस्तु शंकरोवतरिष्यति ।।
अर्थात कलियुग के दो हजार वर्ष बीत जाने पर लोक का अनुग्रह करने के उद्देश्य से चार शिष्यों के साथ भगवान शंकर आचार्य के रूप में अवतरित होंगे।आज उनकी पावन जयन्ती पर श्रद्धा समर्पित है।