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झारखंड की ‘मौलिक पहचान’ खनिज संपदा से नहीं बल्कि उसकी अपनी आदिवासी भाषा’ से होनी चाहिए -बरखा

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किसी भी राज्य की पहचान उसकी भाषा से होती है और  भाषा से उसकी संस्कृति और संस्कृति से वहाॅ के समुदायों की पहचान होती हैं। समुदाय की सभ्यता को जीवित रहने के लिए उस समुदाय की भाषा का जीवित रहना जरूरी हैं। क्योंकि भाषा में ही उस समुदाय की संस्कृति बोलती है, नृत्य करती है और अपनी अभिव्यक्ति बॅया करती हैं। यानि स्पष्ट रूप से कहा जाए तो भाषा समुदाय की आत्मा होती हैं।
झारखंड में 32 आदिवासी  समुदायों की अपनी ‘बोली’ और ‘भाषा’ है लेकिन सिर्फ़ पाॅच मुख्य आदिवासी भाषा सांसे ले रही है जिनमें संताली, हो , मुंडा, कुडूःख और खड़िया हैं। झारखंड आदिवासियों के नाम पर बना भारत का पहला राज्य हैं। इसलिए यहाँ उनकी भाषा , संस्कृति को प्रथमिकता देना राज्य और केन्द्र सरकार की नैतिक जिम्मेदारी बनती हैं। भारत का 27 राज्य अपनी क्षेत्रीय भाषा से पहचाना जाता है पर झारखंड अपनी भाषा से नहीं बल्कि अपने खनिजों से पहचाना जाता है यहाँ की राजकीय भाषा नाम मात्र की है यहाँ का सारा सरकारी कार्य हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषा में होती है जो कहीं न कहीं यहाँ की मुख्य आदिवासी भाषाओं के ऊपर कफन चढ़ाने के जैसा हैं। झारखंड सरकार की प्रथम और मौलिक जिम्मेदारी बनती है कि वह झारखंड की मुख्य आदिवासी भाषाओं को  प्रथम राजकीय भाषा तथा यहाँ  क्षेत्रीय भाषा सदियों से रह रहे सदान वासियों की अपनी खोरठा , नागपूरी, कुरमाली और पंचपरगनियाॅ होनी चाहिए । इसके आलावे दूसरी भाषा को प्रथमिकता देना झारखण्ड सभ्यता संस्कृति पर प्रहार होगा।

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