संजीव वर्मा
छत्तीसगढ़ में इन दिनों नक्सल विरोधी अभियान अपने चरम पर है। आए दिन मुठभेड़, गिरफ्तारी और आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों की खबरें अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं। ऐसा लगता है कि अब वह दिन दूर नहीं जब बस्तर में नक्सलवाद इतिहास बन जाएगा। यदि ऐसा हुआ तो यह छत्तीसगढ़ बनने के बाद से अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। इस बीच, समाजवादी विचारक, चिंतक रघु ठाकुर का यह कहना कि बंदूक की गोली से हिंसा तो मर सकती है परंतु विचार नहीं काबिल-ए-गौर है। दरअसल सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि इस कारण मानी जा रही है क्योंकि अभी हाल ही में शीर्ष नक्सली नेता बसव राजू के मारे जाने के बाद नक्सलियों में हड़कंप मचा हुआ है। नक्सली नेता बार-बार पत्रों के जरिए शांति वार्ता की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन सुरक्षा बलों की कार्रवाई लगातार जारी है। प्रदेश में डेढ़ साल पहले भाजपा के नेतृत्व वाली विष्णुदेव साय सरकार बनने के बाद नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई में तेजी आई है। इस साल की बात करें तो बीते 5 महीनों में 183 हार्डकोर नक्सली मारे जा चुके हैं। 718 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है जबकि 197 नक्सलियों की गिरफ्तारी हुई है। राज्य और केंद्र सरकार की राजनीतिक दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ स्थानीय पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बलों के बीच बेहतर तालमेल और रणनीति का नतीजा है कि नक्सलियों के पैर अब बस्तर से उखडऩे लगे हैं। हालांकि यह इतना आसान भी नहीं है। भले ही लोगों को लग रहा है कि बस्तर में स्थाई शांति और अमन चैन लौट रहा है। इसका बड़ा कारण शीर्ष नक्सली नेता बसव राजू का मारा जाना और नक्सलियों की ओर से शांति वार्ता का प्रस्ताव है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी भी हिड़मा, प्रभाकर और भूपति जैसे शीर्ष नक्सली नेता सक्रिय हैं। भले ही वे सुरक्षा बलों के दबाव के कारण भूमिगत हो गए हो, लेकिन देर-सबेर उनकी सक्रियता से इंकार नहीं किया जा सकता। राज्य सरकार बार-बार नक्सलियों से कह रही है कि वह आत्मसमर्पण करें या फिर सुरक्षा बलों के हाथों मरने के लिए तैयार रहे, लेकिन नक्सलियों की तरफ से सिर्फ पत्रबाजी ही हो रही है। कोई बड़ा नक्सली नेता सामने नहीं आ रहा है। यहां यह बताना जरूरी है कि 70 के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से शोषण के खिलाफ शुरू हुआ नक्सलियों का सशस्त्र विद्रोह आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ सहित 12 राज्यों में फैला हुआ था, जो अब महज चार राज्यों के 6 जिलों तक ही सिमट कर रह गया है। किसानों, गरीबों, शोषितों, वंचितों और आदिवासियों को उनके हक दिलाने के नाम से शुरू हुआ नक्सली आंदोलन आज रंगदारी, हत्या और अराजकता का पर्याय बन चुका है। जो युवा नक्सलियों के झांसे में आकर हिंसक रास्ता अपना चुके थे, उन्हें हताशा के अलावा कुछ नहीं मिला। अब वे पुलिस और सुरक्षा बलों से बचने सुरक्षित ठिकाना ढूंढते जंगलों की खाक छान रहे हैं। तो क्या अब नक्सली आंदोलन अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है? यह अहम सवाल है। हालांकि अभी इसका जवाब किसी के पास नहीं है। जब तक बचे हुए शीर्ष नक्सली नेता आत्मसमर्पण नहीं कर देते। तब तक यह कहना उचित नहीं होगा कि नक्सली अब थक चुके हैं। हालांकि वे पत्रों के जरिए जिस तरह से शांति वार्ता की बात कह रहे हैं, उससे इस संभावना को बल मिलता है कि वे वाकई डरे हुए हैं। यह भी सच है कि नक्सलवादियों की जड़े बेहद मजबूत है। ऐसे में सरकार को स्थानीय लोगों को विश्वास में लेना होगा। सरकार नहीं चाहती थी कि हिंसा के दम पर नक्सली आंदोलन को कुचला जाए, लेकिन नक्सली शांति की भाषा को समझ ही नहीं रहे। इसका परिणाम है कि वे अब सुरक्षित पनाहगार के लिए तरस रहे हैं। इस बीच प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर के हाल ही में धमतरी जिले के अमरदेहान में डॉक्टर राममनोहर लोहिया की प्रतिमा के अनावरण के मौके पर दिया गया बयान भी चर्चा में है। उन्होंने कहा है कि सरकार को समझना होगा की बंदूक की गोली से हिंसा तो मर सकती है, पर विचार नहीं। उन्होंने कहा कि नक्सली हिंसा में दोनों तरफ से आदिवासी ही मर रहे हैं। निश्चित रूप से रघु ठाकुर के बयान प्रासंगिक हैं और यह सच है कि विचार कभी मरते नहीं। यह बात सरकार भी जानती है, लेकिन नक्सलियों को भी समझना होगा कि बंदूक किसी समस्या का समाधान नहीं है। ऐसे में उन्हें हथियार डालकर आत्मसमर्पण के लिए सामने आना होगा। लोकतंत्र में हिंसा की कोई जगह नहीं है। बातचीत के जरिए सारी समस्याओं का समाधान संभव है।