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भोपाल के होम्योपैथी कालेज के प्रोफेसर ने किया अविष्कार

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भोपाल।  दुनिया भर में विशेषत: आदिवासी आबादी को होने वाली सिकिल सेल की अनुवांशिक बीमारी के निदान में मध्यप्रदेश के एक हौम्योपैथी प्रोफेसर और उनकी टीम ने नई राह दिखाई है । आत्म निर्भर भारत योजना के तहत किए गए इस अविष्कार से अब पीड़ितों के ब्लड टेस्ट नाम मात्र की कीमत पर और कम समय पर उनके घर पर ही हो सकेंगे । ब्लड टेस्ट के इस अविष्कार को भारत सरकार के पोर्टल    https://www.agnii.gov.in/innovation/sicklefind-sicklecert पर भी देखा जा सकता है।

शासकीय हौम्योपैथी कालेज के प्रोफेसर और इस पद्धति के प्रमुख शोधकर्ता और अविष्कारक डॉ. निशांत नाम्बीसन बताते हैं कि  उनके साथी और टीम इंस्टीट्यूट ऑफ इंस्ट्रूमेंटेशन एंड एप्लाइड फिजिक्स, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलोर के शोधकर्ताओं ने सिकल सेल एनीमिया के लिए एक नया रक्त परीक्षण उपकरण विकसित किया है। यह उपकरण 5 मिनट से भी कम समय में परीक्षण के परिणाम बता देता है, जो  कि  वर्तमान में उपयोग किए जा रहे परीक्षण तकनीक की लागत से 10 गुना सस्ता है और 10 गुना कम समय भी लेता है। यह एक नई जैव-रासायनिक परीक्षण तकनीक है जो स्वदेशी रूप से विकसित पोर्टेबल पामटॉप रिचार्जेबल डिवाइस के साथ काम करता है । प्रोफेसर नाम्बीसन बताते हैं कि इसमें रक्त की एक बूंद (5 माइक्रोलिटर) का उपयोग होता है और इसे PoC (प्वाइंट ऑफ केयर) पर परीक्षण के लिए दूर-दराज गांव में भी आसानी से ले जाया जा सकता है। इससे जांच की प्रक्रिया और निदान तक पहुँचने में लगने वाले समय में कमी तो आती ही है परिवहन में होने वाले खर्च में भी कमी आती है, जो पीड़ित व्यक्ति के लिए जीवनदायी साबित होगा। 

डॉ. नाम्बीसन ने बताया कि सिकल सेल रोग (SCD), लाल रक्त कोशिकाओं का जन्मतजात रक्त विकार है जो एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है । इसमें रोगी को तरह तरह के असहनीय दर्द होते हैं । रोगी बार-बार बीमार होता है और अस्पताल में भर्ती होता रहता है । 130 करोड़ आबादी वाला भारत आज दुनिया के 50% से अधिक सिकल सेल एनीमिया के रोगियों का घर बन गया है। दक्षिण-पूर्वी गुजरात से दक्षिण-पश्चिमी ओडिशा तक फैली सिकल सेल बेल्ट के कारण यह बीमारी मध्य भारत में सबसे अधिक है। भारत में आज दस लाख से अधिक लोगों को सिकल सेल की बीमारी है और सबसे खतरनाक यह है कि हर साल लगभग 2 लाख बच्चे इस बीमारी के साथ पैदा होते हैं।

उन्होंने बताया कि अनुमान है कि सिकल सेल एनीमिया से पीड़ित बच्चों की देखभाल करने के लिए उनके माता-पिता अपना काम नहीं कर पाते और लगभग 3,500 करोड़ रूपए (लगभग US $ 500 मिलियन) सलाना अर्थव्यवस्था को नुकसान होता है। रोगी की बचपन में ही इस बिमारी से मृत्यु हो जाने के कारण देश के भविष्य की जीडीपी को भी नुकसान होता है, इस कारण सिर्फ 2017 में लगभग 1,000 करोड़ रुपये (लगभग US $ 150 मिलियन) के नुकसान की गणना की गई थी।

वे बताते हैं कि सिकल सेल एनीमिया एक जन्मजात और पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली आनुवंशिक बीमारी होने के कारण यह भारत में एक महत्वपूर्ण स्वास्थ्य बोझ बन रहा है। इसलिए इस बड़ी स्वास्थ्य समस्या से निपटने का एकमात्र तरीका है ज्यादा से ज्यादा लोगों की सामूहिक जांच और रोग के उच्च जोखिम वाले विवाह से बचना।

डॉ. नाम्बीसन ने बताया कि मध्य प्रदेश में ही सिकल सेल एनीमिया का सबसे अधिक बोझ है। उन्होंने बताया कि वे मध्य प्रदेश के दूर-दराज के आदिवासी बहुल गाँवों में सिकल सेल एनीमिया के निदान के लिए कई मुश्किलों का सामना कर शोध करते रहे । उन्हें न सिर्फ निदान की प्रक्रिया में लगने वाले अत्याधिक समय, बल्कि पहले से ही एनीमिक रोगी से काफी मुश्किल और दर्दनाक प्रक्रिया के तहत लिए गए रक्त (5 मिलीलीटर) की मात्रा, जैसी चुनौतिओं का सामना करना पड़ा। तब उन्होंने आईआईएससी बैंगलोर में प्रोफेसर साई गोरथी से मुलाकात की, उनके आपसी सहयोग के माध्यम से, सिकल-सेल ट्रैट (एससीटी) और सिकल-सेल रोग (एससीडी) के बीच अंतर करने के लिए दुनिया का पहला प्वाइंट-ऑफ-केयर कंफर्मेटरी टेस्ट का आविष्कार किया गया। यह आविष्कार न केवल प्रक्रिया को आसान बना देगा बल्कि समय की बचत करेगा, और यह विकासशील देशों के साथ अविकसित देशों के लिए बहुत ही किफायती भी है।

इस HPOS (हाई परफॉरमेंस ऑप्टिकल सेंसिंग) डिवाइस को प्रोफेसर साईं शिव गोरथी, डिपार्टमेंट ऑफ़ इंस्ट्रूमेंटेशन एंड एप्लाइड फिजिक्स, भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर और प्रोफेसर डॉक्टर निशांत केएम नम्बिसन, शासकीय होम्योपैथिक मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल, भोपाल के देखरेख में राजेश श्रीनिवासन, यूजीन क्रिस्टो वीआर, प्रतीक कटारे, अरविन्द वेणुकुमार की वैज्ञानिक टीम द्वारा विकसित किया गया है।

डॉ. नाम्बीसन बताते हैं कि डिवाइस में उपयोग की जाने वाली नई तकनीक इसे पोर्टेबल बनाती है और साथ ही सिकल सेल एनीमिया के निदान के लिए केवल 1/4th ड्रॉप (5 µml) रक्त की आवश्यकता होती है। सबसे ख़ास बात यह है की यह परीक्षण रोगी के घर पर ही किया जा सकता है। स्वास्थ्य कार्यकर्ता को इस उपकरण को संचालित करने के लिए किसी विशेष कौशल की आवश्यकता नहीं होती है। यह आविष्कार मेक-इन-इंडिया और आत्मनिर्भर भारत का एक अद्भुत उदाहरण है। जहाँ एक तरफ HPLC मशीन से जाँच का परिणाम प्राप्त करने में 25 से 30 मिनट का समय लगता है, वहीं इस नए आविष्कार से किए गए परिक्षण का 05 मिनट से भी कम समय में HPOS डिवाइस के माध्यम से परिणाम मिल जाते हैं।

उल्लेखनीय है कि अब तक अमेरिकी तकनीक आधारित एचपीएलसी मशीनों का आयात सिकल सेल एनीमिया के निदान के लिए किया जाता है, लेकिन मशीन में बार-बार लगने वाले रेएजेंट के अधिक मूल्य और उसके परिचालन में अधिक लागत के कारण इनकी कीमत 10 लाख से भी ज्यादा होती है। ये मशीनें भारी होती हैं और इनमें रक्त परिक्षण हेतु रोगियों के 3 – 5 मिलीलीटर रक्त की जरूरत होती है। यह मशीनें केवल उच्च स्तरीय वातानुकूलित प्रयोगशालाओं में ही उपलब्ध हैं, इसलिए दूरस्थ गाँवों से 24 घंटे के अंदर और वो भी 2 से 8 डिग्री के तापमान को बनाये रखते हुए संगृहीत रक्त सैंपल को इन प्रयोगशालाओं में पहुँचाना होता है, जिसमें 4-5 कुशल लोगों की एक टीम की आवश्यकता होती है। इस कारण प्रक्रिया को पूरा करने में अत्याधिक समय और धनराशि लग जाती है।

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